साल 1918 में हिंदी के विख्यात कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने अपनी आत्मकथा ‘कुल्ली भाट’ में लिखा, ‘मैं गंगा के घाट पर खड़ा था। जहां तक नजर जाती, गंगा के पानी में इंसानों की लाशें ही लाशें दिखाई देती थीं। मेरे ससुराल से खबर आई कि मेरी पत्नी मनोहरा देवी भी चल बसी। मेरे भाई के सबसे बड़े बेटे ने भी दम तोड़ दिया। मेरे परिवार के और भी कई लोग हमेशा के लिए चले गए। लोगों के दाह संस्कार के लिए लकड़ियां कम पड़ गई थीं। पलक झपकते ही मेरा परिवार मेरी आंखों के सामने ही खत्म हो गयाा। अखबारों से पता चला था कि ये सब एक बड़ी महामारी के शिकार हुए थे।’ इस महामारी का नाम था स्पैनिश फ्लू। महात्मा गांधी की पुत्रवधू गुलाब और पोते शांति की मृत्यु भी इसी महामारी से हुई थी। स्वयं गांधीजी भी इस जानलेवा बीमारी से बीमार पड़ गए थे। कहा जाता है कि मशहूर उपन्यासकार प्रेमचंद भी इस बीमारी से संक्रमित हुए थे।
1918 शुरू हुई स्पेनिश फ्लू की बीमारी
दुनिया में इसकी शुरुआत जनवरी 1918 में हुई थी, लेकिन भारत में यह बीमारी 29 मई 1918 को तब आई, जब पहले विश्व युद्ध से लौट रहे भारतीय सैनिकों का जहाज मुंबई बंदरगाह पर लगा था। 10 जून 1918 को बंदरगाह पर तैनात सात सिपाहियों को जुकाम की शिकायत पर अस्पताल में भर्ती करवाया गया। यह भारत में स्पेनिश फ्लू का पहला मामला था। भारत में रेलगाड़ियों में सफर करने वाले यात्रियों के कारण यह मुंबई से देश के दूसरे हिस्सों में भी फैल गई। जान एम. बेरी ने अपनी किताब ‘द ग्रेट इन्फ्लूएंजा : द स्टोरी ऑफ द डेडलिएस्ट पैनडेमिक इन हिस्ट्री’ में भारत में इस महामारी के फैलाव का विस्तार से ब्योरा दिया है। वे लिखते हैं कि ट्रेन में सवार होते समय तो लोग अच्छे-भले होते थे, लेकिन गंतव्य तक जाते-जाते मरने के कगार पर पहुंच जाते थे।
भारत में 1.20 करोड़ मौते
इस बीमारी से दुनियाभर में करीब 5 करोड़ लोगों की मौत का अनुमान है। यह दोनों विश्वयुद्धों में हुई कुल मौतों से भी कहीं ज्यादा है। भारत में इससे 1.20 करोड़ लोग मारे गए। भारत में हालात इसलिए खराब हुए क्योंकि इसी समय यहां अकाल पड़ा था, जिससे लोगों की रोगप्रतिरोधक क्षमता कम हो चुकी थी। इस दौरान भारत में आर्थिक विकास शून्य से कहीं नीचे माइनस 10.8 फीसदी तक जा चुकी थी। शुरू में जब यह बीमारी फैली तो दुनियाभर की सरकारों ने इसे इसलिए छिपाया क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिकों का मनोबल गिर जाएगा।
इसलिए पड़ा स्पेनिश फ्लू नाम
सबसे पहले स्पेन ने इस बीमारी के अस्तित्व को स्वीकार किया। इसीलिए इसे स्पेनिश फ्लू का नाम दिया गया। इस बीमारी का सबसे ज्यादा असर पीड़ित के फेफड़ों पर पड़ता था। उसे असहनीय खांसी हो जाती थी और कभी-कभी नाक व कान से खून बहने लगता था। शरीर में भयंकर दर्द होता था। भारत में मार्च 1920 तक इस पर नियंत्रण पाना संभव हो सका। दुनियाभर में दिसंबर 1920 में इसका खात्मा हुआ।
Download Dainik Bhaskar App to read Latest Hindi News Today
Thanks for reading.
Please Share, Comment, Like the post And Follow, Subscribe IVX Times.
fromSource
No comments:
Post a Comment